दिल्ली में निष्काशन की नियत प्रक्रिया: नीति का संक्षिप्त विवरण1 min read


आधारभूत सुविधाओं को लागू करने वाले अधिकारों में, जैसे आवास का अधिकार के अभाव में मलिन बस्तियों में रहने वाले और अन्य असंगठित बस्तियों में रहने वाले लोगों ने पिछले कुछ वर्षों में ख़ुद को संगठित किया और अदालतों द्वारा और राजनैतिक वक़ालत दोनों का उपयोग करके ख़ुद को बेदख़ली से बचाने की कोशिश की है।इसके परिणामस्वरूप इन समुदायों के लिए कम से कम कुछ प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों (और सीमित मौलिक अधिकार) का विस्तार करते हुए, संवैधानिक प्रावधानों और अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत भारत की प्रतिबद्धताओं पर निर्भर निर्णयों, नीतियों और कुछ कानूनों की एक श्रृंखला तैयार की गई है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में इन प्रक्रियाओं और प्रावधानों का संक्षिप्त दस्तावेजीकरण करता है।
By  |  July 2, 2022

स्ंक्षिप्त-सार

प्रस्तुत रिर्पोट में बताया गया है कि किस तरह राज्य की उदासीनता और उचित समय पर आवास की सुविधा नहीं मिल पाने के कारण शहर में काम करने वाले मेहनतकश आबादी द्वारा सार्वजनिक जमीन पर स्लम बस्तियों का निर्माण किया गया। इन बस्तियों में 1989-90 में एक सर्वे किया गया। इस सर्वे में रहने वाले सभी लोगों को आवास के योग्य मानते हुए एक टोकन मुहैय्या कराया गया जिसे स्लम में रहने वाले बीपी सिंह का टोकन के नाम से आज भी जानते हैं। 

इस रिर्पोट में यह बताया गया है कि स्लम बस्तियों में रहने वाले लोग राजकीय उदासीनता के शिकार होते हैं जिसके कारण कई सालों तक वह ऐसे जगह पर रहते हैं जहां पर कोई मौलिक सुविधाएं नहीं होती हैं। उनका पुनर्वास भी ऐसी जगह किया जाता है जहां पर मूलभूत सुविधाओं का अभाव रहता हैं और उनके प्लाट का मालिकाना हक भी उनको नहीं दिया जाता है। 1970 के बाद से उनके प्लाट के साईज को लगातार छोटा किया जाता रहा है। इन स्लम बस्तियों में रहने वाले लोग अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने की लड़ाई आजादी के बाद से ही लड़ते रहे हैं जहां पर हमेशा राज्य और बस्ती वालों के बीच में एक टेंशन रहता है। 

शहर में लम्बे समय से रहने के बावजूद ये लोग राज्य द्वारा बेदखली का शिकार होते हैं जबकि इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय कानून और कोर्ट द्वारा भी समय-समय पर अपने आदेशों और फैसलों में कहा गया है कि पुनर्वास के बिना किसी की बेदखली नहीं की जा सकती है। जैसे सुदामा सिंह के केस में 2010 में कोर्ट का आदेश है की सभी पात्र बेदखल लोगों के लिए आवास का वैकल्पिक सामाधान करना राज्य कि जिम्मेवारी है। बेदखल करने से पूर्व बस्ती के लोगों से मंत्रणा करना जरूरी है। शकूर बस्ती के अजय माकन केस में 2019 में दिल्ली हाई कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि 2015 कि दिल्ली सरकार की नीति दिल्ली के सभी बस्तियों पर लागू होती है चाहे जमीन किसी भी एजेंसी की हो और बेदखली से पूर्व डीयूएसआईबी (DUSIB) जो कि नोडल एजेंसी है उसे परामर्श करना अनिवार्य है। 

दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद आज यह कहा जा सकता है कि दिल्ली के बस्ती वालों के पास बेदखली के खिलाफ आज के समय में कुछ प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपलब्ध है। लेकिन एजेंसियों के आपस में सही समन्वय नहीं होने के कारण आज भी बस्ती वालों को बेदखली के खिलाफ कोर्ट का सहारा लेना पड़ता है जो कि एक खर्चीला और समय बर्बाद करने वाला काम है। 

इस रिर्पोट में स्लम के बसने और उसके बेदखली के इतिहास के साथ बेदखली के खिलाफ, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों द्वारा मिले हुए अधिकार के अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ के 2007 के दिशा-निर्देश, डीयूएसबीआइबी (DUSIB) 2010, 2015, की नीति और 2016 के प्रोटोकाल, डीडीए की 2019 की नीति, 2010 की सुदामा सिंह केस में कोर्ट का फैसला, 1971 में सार्वजनिक जमीन पर कब्जाधारी कानून, 1957 का एमसीडी कानून,  1957 का डीडीए कानून, 1989 का रेलवे कानून व 1995 के वक्फ बोर्ड कानून आदि को लेख और टेबल के माध्यम से संक्षिप्त में समझाया गया है।

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Manish

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